जीवन से जुड़े पांच रहस्य...


हिन्दू धर्म - में ऐसी हजारों बातों का उल्लेख है जिनको जानकर जीवन में चल रहे संकट, असफलता, अलगाव, भ्रम, भटकाव, अस्वस्थता आदि तरह के संघर्षों से बचा जा सकता है। आधुनिक मानव का जीवन संबंधों के बिखराव, धन के अभाव, रोग और शोक का जाल या फिर अनावश्यक अशांति के जाल में फंसा हुआ है। कभी-कभी सबकुछ होने के बाद भी मानसिक और शारीरिक शांति नहीं मिलती। क्यों?


कुछ ऐसी बातों को जो हमारे जीवन से जुड़ी हुई है। इन बातों को माने या न माने, लेकिन इनका हमारे जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। वैसे ऐसे कई रहस्य है लेकिन हम बता रहे हैं मात्र पांच रहस्य...
 
1. ध्यान और मौन : मौन तपस्या और ध्यान का ही एक रूप है। ध्यान से हर तरह की समस्याओं का समाधान हो जाता है। ध्यान से जहां मन को साधा जाता है। मन के सधने से तन स्वस्थ्य होने लगता है। तन और मन के स्वस्थ्‍य और आनंददायक बनने से भविष्‍य उज्जवल बनता है। सभी तरह के रोग और शोक मिट जाते हैं।
ध्यान के प्रकार
 मौन से मन की मौत या...
बढ़ा सकते हैं मन की शक्ति
 

योग कहता है कि मौन ध्यान की ऊर्जा और सत्य का द्वार है। मौन से जहाँ मन की मौत हो जाती है वहीं मौन से मन की ‍शक्ति भी बढ़ती है। जिसे मोक्ष के मार्ग पर जाना है वह मन की मौत में विश्वास रखता है और जिसे मन का भरपूर व सही उपयोग करना है वह मन की शक्ति पर विश्वास करेगा। जब तक मन है तब तक सांसारिक उपद्रव है और मन गया कि संसार खत्म और संन्यास शुरू। मौन से कुछ भी घटित हो सकता है। योग में किसी भी क्रिया को करते वक्त मौन का महत्व माना जाता रहा है।

क्यों रहें मौन- हो सकता है कि पिछले 15-20 वर्षों से तुम व्यर्थ की बहस करते रहे हों। वही बातें बार-बार सोचते और दोहराता रहते हो जो कई वर्षों के क्रम में सोचते और दोहराते रहे। क्या मिला उन बहसों से और सोच के अंतहिन दोहराव से? मानसिक ताप, चिंता और ब्लड प्रेशर की शिकायत या डॉयबिटीज का डाँवाडोल होना। योगीजन कहते हैं कि जरा सोचे आपने अपने ‍जीवन में कितना मौन अर्जित किया और कितनी व्यर्थ की बातें।

मौन रहने का तरीका- ऑफिस में काम कर रहे हैं या सड़क पर चल रहे हैं। कहीं भी एक कप चाय पी रहे हैं या अकेले बैठे हैं। किसी का इंतजार कर रहे हैं या किसी के लिए कहीं जा रहे हैं। सभी स्थितियों में व्यक्ति के मन में विचारों की अनवरत श्रृंखला चलती रहती है और विचार भी कोई नए नहीं होते। रोज वहीं विचार और वही बातें जो पिछले कई वर्षों से चलती रही है।

आप चुपचाप रहने का अभ्यास करें और व्यर्थ की बातों से स्वयं को अलग कर लें। सिर्फ श्वासों के आवागमन पर ही अपना ध्यान लगाए रखें और सामने जो भी दिखाई या सुनाई दे रहा है उसे उसी तरह देंखे जैसे कोई शेर सिंहावलोकन करता है। सोचे बिल्कुल नहीं और कहें कुछ भी नहीं, बल्कि ज्यादा से ज्यादा चुप रहने का अभ्यास करें। साक्षी भाव में रहें अर्था किसी भी रूप में इन्वॉल्व ना हों।

यदि आप ध्यान कर रहे हैं तो आप अपनी श्वासों की आवाज सुनते रहें और उचित होगा कि आसपास का वातावण भी ऐसा हो कि जो आपकी श्वासों की आवाज को सुनने दें। पूर्णत: शांत स्थान पर मौन का मजा लेने वाले जानते हैं कि उस दौरान वे कुछ भी सोचते या समझते नहीं हैं बल्कि सिर्फ हरीभरी प्रकृति को निहारते हैं और स्वयं के अस्तित्व को टटोलते हैं।

अवधि- वैसे तो मौन रहने का समय नियुक्ति नहीं किया जा सकता कहीं भी कभी भी और कितनी भी देर तक मौन रहकर मौन का लाभ पाया जा सकता है। किंतु फिर भी किसी भी नियुक्त समय और स्थान पर रहकर हर दिन ध्यान या मौन 20 मिनट से लेकर 1 घंटे तक किया जा सकता है।

क्या करें मौन में- मौन में सबसे पहले जुबान चुप होती है, लेकिन आप धीरे-धीरे मन को भी चुप करने का प्रयास करें। मन में चुप्पी जब गहराएगी तो आँखें, चेहरा और पूरा शरीर चुप और शांत होने लगेगा। तब इस संसार को नए सिरे से देखना शुरू करें। जैसे एक 2 साल का बच्चा देखता है। जरूरी है कि मौन रहने के दौरान सिर्फ श्वासों के आवागमन को ही महसूस करते हुए उसका आनंद लें।

मौन के लाभ- मौन से मन की शक्ति बढ़ती है। शक्तिशाली मन में किसी भी प्रकार का भय, क्रोध, चिंता और व्यग्रता नहीं रहती। मौन का अभ्यास करने से सभी प्रकार के मानसिक विकार समाप्त हो जाते हैं। रात में नींद अच्छी आती है।

यदि मौन के साथ ध्यान का भी प्रयोग किया जा रहा है तो व्यक्ति निर्मनी दशा अर्थात बगैर मन के जीने वाला बन सकता है इसे ही 'मन की मौत' कहा जाता है जो आध्यात्मिक लाभ के लिए जरूरी है। मन को शां‍त करने के लिए मौन से अच्छा और कोई दूसरा रास्ता नहीं। मन से जागरूकता (होश) का विकास होता है।

मौन से सकारात्मक सोच का विकास होता है। सकारात्मक सोच हमारे अंदर की शक्ति को और मजबूत करती है। ध्यान योग और मौन का निरंतर अभ्यास करने से शरीर की बीमारियों से लड़ने की क्षमता बढ़ती है।
 2. मन : मनुष्य का मन अनंत शक्तियों का स्वामी है। मनुष्य मनुष्य इसलिए है क्योंकि उसके भीतर मन सक्रिय है, जबकि पशु और पक्षियों में मन की सक्रियता नहीं रहती है उनमें प्राणवायु की सक्रियता ज्यादा रहती है। प्राणवायु से क्रोध, बैचेनी, द्वैष, प्रतिद्वंतिता, कामुकता, संशय, प्रमाद, लालच आदि जैसी भावनाएं पैदा होती हैं। पशु और पक्षियों में इसीलिए विचार करने की क्षमता नहीं होती और वे अपनी इंद्रियों के वश में रहकर भावनाओं पर आधारित जीवन जिते हैं।

मन के पार एक मन-
मनुष्य में मन के ज्यादा सक्रिय होने से उसमें एक तत्व विचार अधिक होता है जिससे तर्क और बुद्धि का जन्म होता है। लेकिन अधिकतर मनुष्य अपने मन को दूषित कर उसको 'प्राणपन मन' बना लेते हैं। मन दूषित होता है अशुद्ध अन्न, अशुद्ध कर्म और अशुद्ध वचन से।
आयुर्वेद अनुसार आपके रोग और शोक का निर्माण पहले मन में होता है तब उसके शरीर पर लक्षण दिखाई देने शुरु होते हैं। अच्छा सोचे और अच्छा बोलने के लिए प्रयास करने पड़ते हैं। कर्म का चक्र छोटा है लेकिन भाग्य का चक्र बड़ा। जब तक कर्म के छोटे छोटे चक्र नहीं चलेंगे तब तक भाग्य का बड़ा चक्र नहीं घुमेगा।
पांच कर्मेन्द्रियों के बारे में हिन्दु धर्म में विस्तार से लिखा गया है। उक्त पांचों कर्मेन्द्रियों को पवित्र और स्वस्थ बनाए रखना जरूरी है अन्यथा इससे कर्मबंध बनता है जिसके चलते सुंदर और खुशहाल भविष्य पर प्रभाव पड़ता है। ये पांच कर्मेन्द्रियां हैं:-
1.हाथ:-किसी भी काम या कोई प्रतिकार के लिए ऊपयोग होता है।
2.पैर:-चलने या दौड़ने के लिए उपयोग होता है।
3.वाणी:-एक दुसरे तक बात पहुंचाने के लिए। संवाद कायम करने के लिए।
4.गुदाद्वार:-शरीर का मल/ कचरा निकलने के लिए।
5.उपस्थ (जननेन्द्रिय):-
हाथ:- हाथों का उपयोग आप गलत कार्यों के लिए भी कर सकते हैं। अच्छा करेंगे तो अच्छा होगा। हाथों को जीवन में उपयोग ही नहीं है बल्कि कहते हैं कि सबसे अच्छे हाथ प्रार्थना के होते हैं।
पैर:- पैरों को सुंदर और स्वस्थ बनाए रखना जरूरी है क्योंकि हमारे जीवन में सबसे कर्मठ पैरों को ही माना गया है।
वाणी या वचन के चार प्रकार : परावाणी (देव वचन), पश्यंति वाणी (हृदय से निकले वचन), मध्यमा वाणी (विचारपूर्वक बोले गए वचन), बैखारी वाणी (बगैर सोचे-समझे बोले गए वचन)। बोलने से ही सत्य और असत्य होता है। अच्छे वचन बोलने से अच्छा होता है और बुरे वचन बोलने से बुरा, ऐसा हम अपने बुजुर्गों से सुनते आए हैं।
गुदाद्वार:- ऐसा अन्य खाएं और पीएं कि वह अमृत के समान फल दे।
उपस्थ : इसका सदुपयोग और सम्यक उपयोग जरूरी है।
मन के भी तीन प्रकार हैं: चेतन मन, अवचेतन मन और अचेतन मन। हम पांचों इंद्रियों से जो भी कहते हैं उसका मन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। बार बार किए जाने वाला कर्म अवचेतन और अचेतन मन का हिस्सा बन जाता है। हमारा मन धारणाओं, विचारों और आदतों का एक कुंड है। यह कुंड जितना खाली रहेगा ‍जीवन उतना सुंदर रहेगा।
मन की शक्ति का सदुपयोग सकारात्मक विचारों में निहित है। सूर्य दिन में उगता है रात में नहीं। उसी प्रकार रात में मन सोता है और दिन में जगता है। मन अपने दायरे को छोड़कर कहीं भागता नहीं। उसका दायरा शरीर व मस्तिष्क ही है। हमें भ्रम है कि दुनिया के कोने-कोने में ये जाता है। मन विचारों को पैदा करके स्वयं उसी से डरता है। किसी भी कल्पना से यदि कल्पना करने वाले को दुख पहुंचता है तो वह कल्पना हमारे स्वभाव के लिए उचित नहीं है।
 
 3. शरीर का रखें ध्यान : शरीर को दूषित अन्न, वायु और जल से बचाना जरूरी है। शरीर रोगग्रस्त या कमजोर है तो फिर मन और जीवन भी ऐसा ही होगा। अयुर्वेदानुसार पहला सुख निरोगी काया। इसके लिए हिन्दू धर्म में रस, व्रत, आसन और प्राणायम के महत्व को बताया गया है। अन्न के कई प्रकार बताएं गए हैं लेकिन अन्न से श्रेष्ठ है रसों का सेवन करना।
अन्न ही जहर और अन्न ही अमृत...
 भोजन मानव को निरोगी भी रखता है और रोगी भी रखता है इसीलिए हिन्दू धर्म में योग और आयुर्वेद के नियमों पर चलने के धार्मिक नियम बनाए गए हैं। सेहत से जुड़े सभी तत्वों को हमारे ऋषियों ने धर्म के नियमों से जोड़ दिया है। उन्होंने जहां उपवास के महत्व को बताया वहीं उन्होंने यह भी बताया कि किस माह में क्या खाना चाहिए और क्या नहीं, किस वार को क्या न खाएं और किस नक्षत्र में क्या खाना सबसे उत्तम माना गया है।
 

भोजन करते वक्त इन बातों का ध्यान रखना जरूरी...

जीवन में नियम और अनुशासन नहीं है तो जीवन घोर संकट से घिर सकता है। नियम के बगैर धर्म अधूरा होता है। आओ, जानते हैं कि क्या खाने से हम स्वस्थ बने रह सकते हैं और कौन-सा परहेज करने से हम बीमारी से बचे रह सकते हैं।
सनातन धर्म - ने हर एक हरकत को नियम में बांधा है और हर एक नियम को धर्म में। ये नियम ऐसे हैं जिससे आप किसी भी प्रकार का बंधन महसूस नहीं करेंगे, बल्कि ये नियम आपको सफल और ‍निरोगी ही बनाएँगे। नियम से जीना ही धर्म है।
 
 
भोजन के नियम : * भोजन की थाली को पाट पर रखकर भोजन किसी कुश के आसन पर सुखासन में (आल्की-पाल्की मारकर) बैठकर ही करना चाहिए।
* कांसे के पात्र में भोजन करना निषिद्ध है।
* भोजन करते वक्त मौन रहने से लाभ मिलता है।
* भोजन भोजन कक्ष में ही करना चाहिए।
* भोजन करते वक्त मुख दक्षिण दिशा में नहीं होना चाहिए।
* जल का गिलास हमेशा दाईं ओर रखना चाहिए।
* भोजन अँगूठे सहित चारों अँगुलियों के मेल से करना चाहिए।
* परिवार के सभी सदस्यों को साथ मिल-बैठकर ही भोजन करना चाहिए।
* भोजन का समय निर्धारित होना चाहिए।
* दो वक्त का भोजन करने वाले के लिए जरूरी है कि वे समय के पाबंद रहें।
* संध्या काल के अस्त के पश्चात भोजन और जल का त्याग कर दिया जाता है।

 
 क्या कहते हैं शास्त्र -  
शास्त्र कहते हैं कि योगी एक बार और भोगी दो बार भोजन ग्रहण करता है। रात्रि का भोजन निषेध माना गया है। भोजन करते वक्त थाली में से तीन ग्रास (कोल) निकालकर अलग रखे जाते हैं तथा अंजुली में जल भरकर भोजन की थाली के आसपास दाएँ से बाएँ गोल घुमाकर अंगुली से जल को छोड़ दिया जाता है।

अंगुली से छोड़ा गया जल देवताओं के लिए और अंगूठे से छोड़ा गया जल पितरों के लिए होता है। यहाँ सिर्फ देवताओं के लिए जल छोड़ा जाता है। यह तीन कोल ब्रह्मा, विष्णु और महेश के लिए या मन कथन अनुसार गाय, कौआ और कुत्ते के लिए भी रखा जा सकता है।
भोजन के तीन प्रकार-

* जैसा खाओगे अन्न वैसा बनेगा मन। भोजन शुद्ध और सात्विक होना चाहिए। शास्त्रों में कहा गया है कि सात्विक भोजन से व्यक्ति का मन सकारात्मक सोच वाला व मस्तिष्क शांतिमय बनता है। इससे शरीर स्वस्थ रहकर निरोगी बनता है।
* राजसिक भोजन से उत्तेजना का संचार होता है जिसके कारण व्यक्ति में क्रोध तथा चंचलता बनी रहती है।
* तामसिक भोजन द्वारा आलस्य, अति नींद, उदासी, सेक्स भाव और नकारात्मक धारणाओं से व्यक्ति ग्रसित होकर चेतना को गिरा लेता है।

सात्विक भोजन से व्यक्ति चेतना के तल से उपर उठकर निर्भीक तथा होशवान बनता है और ता‍मसिक भोजन से चेतना में गिरावट आती है जिससे व्यक्ति मूढ़ बनकर भोजन तथा संभोग में ही रत रहने वाला बन जाता है। राजसिक भोजन व्यक्ति को जीवनपर्यंत तनावग्रस्त, चंचल, भयभीत और अति-भावुक बनाए रखकर संसार में उलझाए रखता है।

 भोजन के बाद कब पिएं पानी-
 जल के नियम :

* भोजन के पूर्व जल का सेवन करना उत्तम, मध्य में मध्यम और भोजन पश्चात करना निम्नतम माना गया है।
* भोजन के 1 घंटे पश्चात जल सेवन किया जा सकता है।
* भोजन के पश्चात थाली या पत्तल में हाथ धोना भोजन का अपमान माना गया है।
* पानी छना हुआ होना चाहिए और हमेशा बैठकर ही पीया जाता है।
* खड़े रहकर या चलते-फिरते पानी पीने से ब्लॉडर और किडनी पर जोर पड़ता है।
* पानी गिलास में घूंट-घूंट ही पीना चाहिए।
* अंजुली में भरकर पिए गए पानी में मिठास उत्पन्न हो जाती है।
* जहाँ पानी रखा गया है वह स्थान ईशान कोण का हो तथा साफ-सुथरा होना चाहिए। पानी की शुद्धता जरूरी है।

विशेष : भोजन खाते या पानी पीते वक्त भाव और विचार निर्मल और सकारात्मक होना चाहिए। कारण कि पानी में बहुत से रोगों को समाप्त करने की क्षमता होती है और भोजन-पानी आपकी भावदशा अनुसार अपने गुण बदलते रहते हैं।
 
 जरूरी हिदायत :
 
  * एकादशी, द्वादशी और तेरस के दिन बैंगन खाना मना है। बीमारी लौट आती है और पुत्र का नाश होता है।
* अमावस्या, पूर्णिमा, संक्रांति, चतुर्दशी और अष्टमी, रविवार, श्राद्ध एवं व्रत के दिन तिल का तेल, लाल रंग के साग का सेवन करना मना है। इस दिन स्त्री सहवास भी नहीं करना चाहिए।
* रविवार के दिन अदरक भी नहीं खाना चाहिए।
* कार्तिक मास में बैंगन और माघ मास में मूली का त्याग करना चाहिए।
* जो भोजन लड़ाई-झगड़ा करके बनाया गया हो, उसे ग्रहण नहीं करना चाहिए।
* जिस भोजन को किसी ने लांघ दिया हो, उसका भी त्याग करना चाहिए।
* एमसी (रजस्वला) वाली स्त्री ने बनाया या छू लिया हो, उस भोजन का भी त्याग करना चाहिए।
* लक्ष्मी प्राप्त करने वाले को रात में दही और सत्तू नहीं खाना चाहिए आदि...।
 

4. पूर्णिमा और अमावस्या : मान्यता अनुसार कुछ खास दिनों में कुछ खास कार्य करने से बचना चाहिए। खास कार्य ही नहीं करना चाहिए बल्कि अपने व्यवहार को भी संयमित रखना चाहिए। जानकार लोग तो यह कहते हैं कि तेरस, चौदस, पूर्णिमा, अमावस्या, प्रतिपदा, ग्यारस, चंद्रग्रहण, सूर्यग्रहण उक्त 8 दिन पवित्र बने रहने में ही भलाई है, क्योंकि इन दिनों में देव और असुर सक्रिय रहते हैं। इसके अलावा सूर्योदय के पूर्व और सूर्यास्त के बाद भी सतर्क रहने की जरूरत है। सूर्यास्तक के बाद दिन अस्त तक के काल को महाकाल का समय कहा जाता है। सूर्योदय के पहले के काल को देवकाल कहा जाता है। उक्त काल में कभी भी नकारात्मक बोलना या सोचना नहीं चाहिए अन्यथा वैसे ही घटित होने लगता है।
 
 हिन्दू धर्म में पूर्णिमा, अमावस्या और ग्रहण के रहस्य को उजागर किया गया है। इसके अलावा वर्ष में ऐसे कई महत्वपूर्ण दिन और रात हैं जिनका धरती और मानव मन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। उनमें से ही माह में पड़ने वाले 2 दिन सबसे महत्वपूर्ण हैं- पूर्णिमा और अमावस्या। पूर्णिमा और अमावस्या के प्रति बहुत से लोगों में डर है। खासकर अमावस्या के प्रति ज्यादा डर है। वर्ष में 12 पूर्णिमा और 12 अमावस्या होती हैं। सभी का अलग-अलग महत्व है।

हिन्दू पंचांग के अनुसार माह के 30 दिन को चन्द्र कला के आधार पर 15-15 दिन के 2 पक्षों में बांटा गया है- शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष। शुक्ल पक्ष के अंतिम दिन को पूर्णिमा कहते हैं और कृष्ण पक्ष के अंतिम दिन को अमावस्या।

हिन्दू पंचांग की अवधारणा

यदि शुरुआत से गिनें तो 30 तिथियों के नाम निम्न हैं- पूर्णिमा (पूरनमासी), प्रतिपदा (पड़वा), द्वितीया (दूज), तृतीया (तीज), चतुर्थी (चौथ), पंचमी (पंचमी), षष्ठी (छठ), सप्तमी (सातम), अष्टमी (आठम), नवमी (नौमी), दशमी (दसम), एकादशी (ग्यारस), द्वादशी (बारस), त्रयोदशी (तेरस), चतुर्दशी (चौदस) और अमावस्या (अमावस)।

अमावस्या पंचांग के अनुसार माह की 30वीं और कृष्ण पक्ष की अंतिम तिथि है जिस दिन कि चंद्रमा आकाश में दिखाई नहीं देता। हर माह की पूर्णिमा और अमावस्या को कोई न कोई पर्व अवश्य मनाया जाता ताकि इन दिनों व्यक्ति का ध्यान धर्म की ओर लगा रहे। लेकिन इसके पीछे आखिर रहस्य क्या है?
 
 
 नकारात्मक और सकारात्मक शक्तियां : धरती के मान से 2 तरह की शक्तियां होती हैं- सकारात्मक और नकारात्मक, दिन और रात, अच्छा और बुरा आदि। हिन्दू धर्म के अनुसार धरती पर उक्त दोनों तरह की शक्तियों का वर्चस्व सदा से रहता आया है। हालांकि कुछ मिश्रित शक्तियां भी होती हैं, जैसे संध्या होती है तथा जो दिन और रात के बीच होती है। उसमें दिन के गुण भी होते हैं और रात के गुण भी।

इन प्राकृतिक और दैवीय शक्तियों के कारण ही धरती पर भांति-भांति के जीव-जंतु, पशु-पक्षी और पेड़-पौधों, निशाचरों आदि का जन्म और विकास हुआ है। इन शक्तियों के कारण ही मनुष्यों में देवगुण और दैत्य गुण होते हैं।

हिन्दुओं ने सूर्य और चन्द्र की गति और कला को जानकर वर्ष का निर्धारण किया गया। 1 वर्ष में सूर्य पर आधारित 2 अयन होते हैं- पहला उत्तरायण और दूसरा दक्षिणायन। इसी तरह चंद्र पर आधारित 1 माह के 2 पक्ष होते हैं- शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष।

इनमें से वर्ष के मान से उत्तरायण में और माह के मान से शुक्ल पक्ष में देव आत्माएं सक्रिय रहती हैं, तो दक्षिणायन और कृष्ण पक्ष में दैत्य और पितर आत्माएं ज्यादा सक्रिय रहती हैं। अच्छे लोग किसी भी प्रकार का धार्मिक और मांगलिक कार्य रात में नहीं करते जबकि दूसरे लोग अपने सभी धार्मिक और मांगलिक कार्य सहित सभी सांसारिक कार्य रात में ही करते हैं।

पूर्णिमा का रहस्य-
पूर्णिमा का विज्ञान : पूर्णिमा की रात मन ज्यादा बेचैन रहता है और नींद कम ही आती है। कमजोर दिमाग वाले लोगों के मन में आत्महत्या या हत्या करने के विचार बढ़ जाते हैं। चांद का धरती के जल से संबंध है। जब पूर्णिमा आती है तो समुद्र में ज्वार-भाटा उत्पन्न होता है, क्योंकि चंद्रमा समुद्र के जल को ऊपर की ओर खींचता है। मानव के शरीर में भी लगभग 85 प्रतिशत जल रहता है। पूर्णिमा के दिन इस जल की गति और गुण बदल जाते हैं।

वैज्ञानिकों के अनुसार इस दिन चन्द्रमा का प्रभाव काफी तेज होता है इन कारणों से शरीर के अंदर रक्‍त में न्यूरॉन सेल्स क्रियाशील हो जाते हैं और ऐसी स्थिति में इंसान ज्यादा उत्तेजित या भावुक रहता है। एक बार नहीं, प्रत्येक पूर्णिमा को ऐसा होता रहता है तो व्यक्ति का भविष्य भी उसी अनुसार बनता और बिगड़ता रहता है।

जिन्हें मंदाग्नि रोग होता है या जिनके पेट में चय-उपचय की क्रिया शिथिल होती है, तब अक्सर सुनने में आता है कि ऐसे व्यक्‍ति भोजन करने के बाद नशा जैसा महसूस करते हैं और नशे में न्यूरॉन सेल्स शिथिल हो जाते हैं जिससे दिमाग का नियंत्रण शरीर पर कम, भावनाओं पर ज्यादा केंद्रित हो जाता है। ऐसे व्यक्‍तियों पर चन्द्रमा का प्रभाव गलत दिशा लेने लगता है। इस कारण पूर्णिमा व्रत का पालन रखने की सलाह दी जाती है।

कुछ मुख्य पूर्णिमा : कार्तिक पूर्णिमा, माघ पूर्णिमा, शरद पूर्णिमा, गुरु पूर्णिमा, बुद्ध पूर्णिमा आदि।

चेतावनी : इस दिन किसी भी प्रकार की तामसिक वस्तुओं का सेवन नहीं करना चाहिए। इस दिन शराब आदि नशे से भी दूर रहना चाहिए। इसके शरीर पर ही नहीं, आपके भविष्य पर भी दुष्परिणाम हो सकते हैं। जानकार लोग तो यह कहते हैं कि चौदस, पूर्णिमा और प्रतिपदा उक्त 3 दिन पवित्र बने रहने में ही भलाई है।

 अमावस्या का रहस्य: वर्ष के मान से उत्तरायण में और माह के मान से शुक्ल पक्ष में देव आत्माएं सक्रिय रहती हैं तो दक्षिणायन और कृष्ण पक्ष में दैत्य आत्माएं ज्यादा सक्रिय रहती हैं। जब दानवी आत्माएं ज्यादा सक्रिय रहती हैं, तब मनुष्यों में भी दानवी प्रवृत्ति का असर बढ़ जाता है इसीलिए उक्त दिनों के महत्वपूर्ण दिन में व्यक्ति के मन-मस्तिष्क को धर्म की ओर मोड़ दिया जाता है।

अमा‍वस्या के दिन भूत-प्रेत, पितृ, पिशाच, निशाचर जीव-जंतु और दैत्य ज्यादा सक्रिय और उन्मुक्त रहते हैं। ऐसे दिन की प्रकृति को जानकर विशेष सावधानी रखनी चाहिए। प्रेत के शरीर की रचना में 25 प्रतिशत फिजिकल एटम और 75 प्रतिशत ईथरिक एटम होता है। इसी प्रकार पितृ शरीर के निर्माण में 25 प्रतिशत ईथरिक एटम और 75 प्रतिशत एस्ट्रल एटम होता है। अगर ईथरिक एटम सघन हो जाए तो प्रेतों का छायाचित्र लिया जा सकता है और इसी प्रकार यदि एस्ट्रल एटम सघन हो जाए तो पितरों का भी छायाचित्र लिया जा सकता है।

ज्योतिष में चन्द्र को मन का देवता माना गया है। अमावस्या के दिन चन्द्रमा दिखाई नहीं देता। ऐसे में जो लोग अति भावुक होते हैं, उन पर इस बात का सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है। लड़कियां मन से बहुत ही भावुक होती हैं। इस दिन चन्द्रमा नहीं दिखाई देता तो ऐसे में हमारे शरीर में हलचल अधिक बढ़ जाती है। जो व्यक्ति नकारात्मक सोच वाला होता है उसे नकारात्मक शक्ति अपने प्रभाव में ले लेती है।

धर्मग्रंथों में चन्द्रमा की 16वीं कला को 'अमा' कहा गया है। चन्द्रमंडल की 'अमा' नाम की महाकला है जिसमें चन्द्रमा की 16 कलाओं की शक्ति शामिल है। शास्त्रों में अमा के अनेक नाम आए हैं, जैसे अमावस्या, सूर्य-चन्द्र संगम, पंचदशी, अमावसी, अमावासी या अमामासी। अमावस्या के दिन चन्द्र नहीं दिखाई देता अर्थात जिसका क्षय और उदय नहीं होता है उसे अमावस्या कहा गया है, तब इसे 'कुहू अमावस्या' भी कहा जाता है। अमावस्या माह में एक बार ही आती है। शास्त्रों में अमावस्या तिथि का स्वामी पितृदेव को माना जाता है। अमावस्या सूर्य और चन्द्र के मिलन का काल है। इस दिन दोनों ही एक ही राशि में रहते हैं।

कुछ मुख्‍य अमावस्या : भौमवती अमावस्या, मौनी अमावस्या, शनि अमावस्या, हरियाली अमावस्या, दिवाली अमावस्या, सोमवती अमावस्या, सर्वपितृ अमावस्या।

चेतावनी : इस दिन किसी भी प्रकार की तामसिक वस्तुओं का सेवन नहीं करना चाहिए। इस दिन शराब आदि नशे से भी दूर रहना चाहिए। इसके शरीर पर ही नहीं, आपके भविष्य पर भी दुष्परिणाम हो सकते हैं। जानकार लोग तो यह कहते हैं कि चौदस, अमावस्या और प्रतिपदा उक्त 3 दिन पवित्र बने रहने में ही भलाई है।

अमावस्या : अमावस्या को हो सके तो यात्रा टालना चाहिए। किसी भी प्रकार का व्यसन नहीं करना चाहिए। इस दिन रा‍क्षसी प्रवृत्ति की आत्माएं सक्रिय रहती हैं। यह प्रेत और पितरों का दिन माना गया है। इस दिन बुरी आत्माएं भी सक्रिय रहती हैं, जो आपको किसी भी प्रकार से ‍जाने-अनजाने नुकसान पहुंचा सकती है। इस दिन शराब, मांस, संभोग आदि कार्य से दूर रहें।
पूर्णिमा : पूर्णिमा की रात मन ज्यादा बेचैन रहता है और नींद कम ही आती है। कमजोर दिमाग वाले लोगों के मन में आत्महत्या या हत्या करने के विचार बढ़ जाते हैं। हालांकि पूर्णिमा की रात में चांद की रोशनी स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभदायक होती है। पूर्णिमा की रात में कुछ देर चांदनी में बैठने से मन को शांति मिलती है। कुछ देर चांद को देखने से आंखों को ठंडक मिलती है और साथ ही रोशनी भी बढ़ती है। इस दिन नकारात्मक विचार, बुरे वचन, शराब, मांस, संभोग आदि कार्य से दूर रहें।
 
5. सपने : हिन्दू धर्म  में सपनों को बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। सपने आपके जीवन का हाल बताते हैं और सपने आपका भविष्य भी बना सकते हैं। अच्छे सपने आने का अर्थ है कि आपका दिन अच्छा है और अच्छे विचार कर रहे हैं। सोचीए यदि आपका दिन खराब होगा तो रात कैसे अच्छी हो सकती है? सोच खराब होगी तो भावना कैसे अच्छी हो सकती है?
 

 ऐसे में वर्तमान के साथ भविष्य के अच्छे होने की कोई गारंटी नहीं। इसीलिए सपने अच्छे आएं इसकी चिंता करें। कोई इसकी चिंता नहीं करता, जो करता है वह नया भविष्य गढ़ लेता है। हिन्दू धर्मशास्त्रों में सपनों के बारे में और स्वप्न फल के बारे में बहुत कुछ लिखा हुआ है। इसीलिए अपने सपनों को संभालें तो जीवन संभल जाएगा।
स्वप्नों के प्रकार :
* दृष्ट:- जो जाग्रत अवस्था में देखा गया हो उसे स्वप्न में देखना। 
* श्रुत:- सोने से पूर्व सुनी गई बातों को स्वप्न में देखना।  
* अनुभूत:- जो जागते हुए अनुभव किया हो उसे देखना।  
* प्रार्थित:- जाग्रत अवस्था में की गई प्रार्थना की इच्छा को स्वप्न में देखना। 
* दोषजन्य:- वात, पित्त, कफ आदि दूषित होने से पैदा होने वाले स्वप्न देखना।
* भाविक:- जो भविष्य में घटित होना है, उसे देखना।

उपर्युक्त सपनों में केवल भाविक ही विचारणीय होते हैं। लेकिन अन्य को स्वस्थ और सकारात्मक बनाने के लिए अन्न और विचारों को शुद्ध और पवित्र बनाना जरूरी होगा।
  
 

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