सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच।।
शास्त्रकार कहते हैं- 'मननात् त्रायते इति मंत्र:' अर्थात मनन करने पर जो त्राण दे या रक्षा करे वही मंत्र है। धर्म, कर्म और मोक्ष की प्राप्ति हेतु प्रेरणा देने वाली शक्ति को मंत्र कहते हैं। तंत्रानुसार देवता के सूक्ष्म शरीर को या इष्टदेव की कृपा को मंत्र कहते हैं।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच।।
शास्त्रकार कहते हैं- 'मननात् त्रायते इति मंत्र:' अर्थात मनन करने पर जो त्राण दे या रक्षा करे वही मंत्र है। धर्म, कर्म और मोक्ष की प्राप्ति हेतु प्रेरणा देने वाली शक्ति को मंत्र कहते हैं। तंत्रानुसार देवता के सूक्ष्म शरीर को या इष्टदेव की कृपा को मंत्र कहते हैं।

दिव्य-शक्तियों की कृपा को
प्राप्त करने में उपयोगी शब्द शक्ति को 'मंत्र' कहते हैं। अदृश्य गुप्त
शक्ति को जागृत करके अपने अनुकूल बनाने वाली विधा को मंत्र कहते हैं। और
अंत में इस प्रकार गुप्त शक्ति को विकसित करने वाली विधा को मंत्र कहते
हैं।
तंत्र, मंत्र, यंत्र और योग साधना का लाभ...
हर समस्या का बस एक उपाय : गायत्री मंत्र
चमत्कारी और सिद्ध है महामृत्युंजय मंत्र
हर समस्या का करे अंत, श्रीकृष्ण के विशेष मंत्र
संस्कृत क्यों देव भाषा, जानिए...
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संस्कृत क्यों देव भाषा, जानिए...
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रूसी, जर्मन, जापानी, अमेरिकी सक्रिय रूप से हमारी पवित्र पुस्तकों से नई चीजों पर शोध कर रहे हैं और उन्हें वापस दुनिया के सामने अपने नाम से रख रहे हैं। दुनिया के कई देशों में एक या अधिक संस्कृत विश्वविद्यालय संस्कृत और वेद के बारे में अध्ययन और नई प्रौद्योगिकी प्राप्त करने के लिए जुटे हैं।

हमारे देश में तो इंग्लिश
बोलना शान की बात मानी जाती है। इंग्लिश नहीं आने पर लोग आत्मग्लानि अनुभव
करते हैं जिस कारण जगह-जगह इंग्लिश स्पीकिंग कोर्स चल रहे हैं।
संस्कृत पांडुलिपियों का संरक्षण जरूरी आज के दौर में संस्कृत
संस्कृत विश्व की सबसे प्राचीन भाषा है तथा समस्त भारतीय भाषाओं की जननी है। 'संस्कृत' का शाब्दिक अर्थ है परिपूर्ण भाषा। संस्कृत पूर्णतया वैज्ञानिक तथा सक्षम भाषा है। संस्कृत भाषा के व्याकरण में विश्वभर के भाषा विशेषज्ञों का ध्यानाकर्षण किया है। उसके व्याकरण को देखकर ही अन्य भाषाओं के व्याकरण विकसित हुए हैं। आधुनिक वैज्ञानिकों के अनुसार यह भाषा कम्प्यूटर के उपयोग के लिए सर्वोत्तम भाषा है, लेकिन इस भाषा को वे कभी भी कम्प्यूटर की भाषा नहीं बनने देंगे।
कहते हैं कि किसी देश की जाति, संस्कृति, धर्म और इतिहास को नष्ट करना है तो उसकी भाषा को सबसे पहले नष्ट किया जाए। मात्र 3,000 वर्ष पूर्व तक भारत में संस्कृत बोली जाती थी तभी तो ईसा से 500 वर्ष पूर्व पाणिणी ने दुनिया का पहला व्याकरण ग्रंथ लिखा था, जो संस्कृत का था। इसका नाम 'अष्टाध्यायी' है।
1100 ईसवीं तक संस्कृत समस्त भारत की राजभाषा के रूप सें जोड़ने की प्रमुख कड़ी थी। अरबों और अंग्रेजों ने सबसे पहले ही इसी भाषा को खत्म किया और भारत पर अरबी और रोमन लिपि और भाषा को लादा गया। भारत की कई भाषाओं की लिपि देवनागरी थी लेकिन उसे बदलकर अरबी कर दिया गया, तो कुछ को नष्ट ही कर दिया गया। वर्तमान में हिन्दी की लिपि को रोमन में बदलने का छद्म कार्य शुरू हो चला है।
यदि संस्कृत व्यापक पैमाने पर नहीं बोली जाती तो व्याकरण लिखने की आवश्यकता ही नहीं होती। भारत में आज जितनी भी भाषाएं बोली जाती है वे सभी संस्कृत से जन्मी हैं जिनका इतिहास मात्र 1500 से 2000 वर्ष पुराना है। उन सभी से पहले संस्कृत, प्राकृत, पाली, अर्धमागधि आदि भाषाओं का प्रचलन था।
आदिकाल में भाषा नहीं थी, ध्वनि संकेत थे। ध्वनि संकेतों से मानव समझता था कि कोई व्यक्ति क्या कहना चाहता है। फिर चित्रलिपियों का प्रयोग किया जाने लगा। प्रारंभिक मनुष्यों ने भाषा की रचना अपनी विशेष बौद्धिक प्रतिभा के बल पर नहीं की। उन्होंने अपने-अपने ध्वनि संकेतों को चित्र रूप और फिर विशेष आकृति के रूप देना शुरू किया। इस तरह भाषा का क्रमश: विकास हुआ। इसमें किसी भी प्रकार की बौद्धिक और वैज्ञानिक क्षमता का उपयोग नहीं किया गया।
संस्कृत ऐसी भाषा नहीं है जिसकी रचना की गई हो। इस भाषा की खोज की गई है। भारत में पहली बार उन लोगों ने सोचा-समझा और जाना कि मानव के पास अपनी कोई एक लिपियुक्त और मुकम्मल भाषा होना चाहिए जिसके माध्यम से वह संप्रेषण और विचार-विमर्श ही नहीं कर सके बल्कि जिसका कोई वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक आधार भी हो। ये वे लोग थे, जो हिमालय के आसपास रहते थे।
उन्होंने ऐसी भाषा को बोलना शुरू किया, जो प्रकृतिसम्मत थी। पहली दफे सोच-समझकर किसी भाषा का आविष्कार हुआ था तो वो संस्कृत थी। चूंकि इसका आविष्कार करने वाले देवलोक के देवता थे तो इसे देववाणी कहा जाने लगा। संस्कृत को देवनागरी में लिखा जाता है। देवता लोग हिमालय के उत्तर में रहते थे।
संस्कृत पांडुलिपियों का संरक्षण जरूरी आज के दौर में संस्कृत
संस्कृत विश्व की सबसे प्राचीन भाषा है तथा समस्त भारतीय भाषाओं की जननी है। 'संस्कृत' का शाब्दिक अर्थ है परिपूर्ण भाषा। संस्कृत पूर्णतया वैज्ञानिक तथा सक्षम भाषा है। संस्कृत भाषा के व्याकरण में विश्वभर के भाषा विशेषज्ञों का ध्यानाकर्षण किया है। उसके व्याकरण को देखकर ही अन्य भाषाओं के व्याकरण विकसित हुए हैं। आधुनिक वैज्ञानिकों के अनुसार यह भाषा कम्प्यूटर के उपयोग के लिए सर्वोत्तम भाषा है, लेकिन इस भाषा को वे कभी भी कम्प्यूटर की भाषा नहीं बनने देंगे।
कहते हैं कि किसी देश की जाति, संस्कृति, धर्म और इतिहास को नष्ट करना है तो उसकी भाषा को सबसे पहले नष्ट किया जाए। मात्र 3,000 वर्ष पूर्व तक भारत में संस्कृत बोली जाती थी तभी तो ईसा से 500 वर्ष पूर्व पाणिणी ने दुनिया का पहला व्याकरण ग्रंथ लिखा था, जो संस्कृत का था। इसका नाम 'अष्टाध्यायी' है।
1100 ईसवीं तक संस्कृत समस्त भारत की राजभाषा के रूप सें जोड़ने की प्रमुख कड़ी थी। अरबों और अंग्रेजों ने सबसे पहले ही इसी भाषा को खत्म किया और भारत पर अरबी और रोमन लिपि और भाषा को लादा गया। भारत की कई भाषाओं की लिपि देवनागरी थी लेकिन उसे बदलकर अरबी कर दिया गया, तो कुछ को नष्ट ही कर दिया गया। वर्तमान में हिन्दी की लिपि को रोमन में बदलने का छद्म कार्य शुरू हो चला है।
यदि संस्कृत व्यापक पैमाने पर नहीं बोली जाती तो व्याकरण लिखने की आवश्यकता ही नहीं होती। भारत में आज जितनी भी भाषाएं बोली जाती है वे सभी संस्कृत से जन्मी हैं जिनका इतिहास मात्र 1500 से 2000 वर्ष पुराना है। उन सभी से पहले संस्कृत, प्राकृत, पाली, अर्धमागधि आदि भाषाओं का प्रचलन था।
आदिकाल में भाषा नहीं थी, ध्वनि संकेत थे। ध्वनि संकेतों से मानव समझता था कि कोई व्यक्ति क्या कहना चाहता है। फिर चित्रलिपियों का प्रयोग किया जाने लगा। प्रारंभिक मनुष्यों ने भाषा की रचना अपनी विशेष बौद्धिक प्रतिभा के बल पर नहीं की। उन्होंने अपने-अपने ध्वनि संकेतों को चित्र रूप और फिर विशेष आकृति के रूप देना शुरू किया। इस तरह भाषा का क्रमश: विकास हुआ। इसमें किसी भी प्रकार की बौद्धिक और वैज्ञानिक क्षमता का उपयोग नहीं किया गया।
संस्कृत ऐसी भाषा नहीं है जिसकी रचना की गई हो। इस भाषा की खोज की गई है। भारत में पहली बार उन लोगों ने सोचा-समझा और जाना कि मानव के पास अपनी कोई एक लिपियुक्त और मुकम्मल भाषा होना चाहिए जिसके माध्यम से वह संप्रेषण और विचार-विमर्श ही नहीं कर सके बल्कि जिसका कोई वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक आधार भी हो। ये वे लोग थे, जो हिमालय के आसपास रहते थे।
उन्होंने ऐसी भाषा को बोलना शुरू किया, जो प्रकृतिसम्मत थी। पहली दफे सोच-समझकर किसी भाषा का आविष्कार हुआ था तो वो संस्कृत थी। चूंकि इसका आविष्कार करने वाले देवलोक के देवता थे तो इसे देववाणी कहा जाने लगा। संस्कृत को देवनागरी में लिखा जाता है। देवता लोग हिमालय के उत्तर में रहते थे।
दुनिया की सभी भाषाओं का
विकास मानव, पशु-पक्षियों द्वारा शुरुआत में बोले गए ध्वनि संकेतों के आधार
पर हुआ अर्थात लोगों ने भाषाओं का विकास किया और उसे अपने देश और धर्म की
भाषा बनाया। लेकिन संस्कृत किसी देश या धर्म की भाषा नहीं यह अपौरूष भाषा
है, क्योंकि इसकी उत्पत्ति और विकास ब्रह्मांड की ध्वनियों को सुन-जानकर
हुआ। यह आम लोगों द्वारा बोली गई ध्वनियां नहीं हैं।
धरती और ब्रह्मांड में गति सर्वत्र है। चाहे वस्तु स्थिर हो या गतिमान। गति होगी तो ध्वनि निकलेगी। ध्वनि होगी तो शब्द निकलेगा। देवों और ऋषियों ने उक्त ध्वनियों और शब्दों को पकड़कर उसे लिपि में बांधा और उसके महत्व और प्रभाव को समझा।
संस्कृत विद्वानों के अनुसार सौर परिवार के प्रमुख सूर्य के एक ओर से 9 रश्मियां निकलती हैं और ये चारों ओर से अलग-अलग निकलती हैं। इस तरह कुल 36 रश्मियां हो गईं। इन 36 रश्मियों के ध्वनियों पर संस्कृत के 36 स्वर बने। इस तरह सूर्य की जब 9 रश्मियां पृथ्वी पर आती हैं तो उनकी पृथ्वी के 8 वसुओं से टक्कर होती है। सूर्य की 9 रश्मियां और पृथ्वी के 8 वसुओं के आपस में टकराने से जो 72 प्रकार की ध्वनियां उत्पन्न हुईं, वे संस्कृत के 72 व्यंजन बन गईं। इस प्रकार ब्रह्मांड में निकलने वाली कुल 108 ध्वनियां पर संस्कृत की वर्ण माला आधारित हैं।
ब्रह्मांड की ध्वनियों के रहस्य के बारे में वेदों से ही जानकारी मिलती है। इन ध्वनियों को अंतरिक्ष वैज्ञानिकों के संगठन नासा और इसरो ने भी माना है।
कहा जाता है कि अरबी भाषा को कंठ से और अंग्रेजी को केवल होंठों से ही बोला जाता है किंतु संस्कृत में वर्णमाला को स्वरों की आवाज के आधार पर कवर्ग, चवर्ग, टवर्ग, तवर्ग, पवर्ग, अंत:स्थ और ऊष्म वर्गों में बांटा गया है।
धरती और ब्रह्मांड में गति सर्वत्र है। चाहे वस्तु स्थिर हो या गतिमान। गति होगी तो ध्वनि निकलेगी। ध्वनि होगी तो शब्द निकलेगा। देवों और ऋषियों ने उक्त ध्वनियों और शब्दों को पकड़कर उसे लिपि में बांधा और उसके महत्व और प्रभाव को समझा।
संस्कृत विद्वानों के अनुसार सौर परिवार के प्रमुख सूर्य के एक ओर से 9 रश्मियां निकलती हैं और ये चारों ओर से अलग-अलग निकलती हैं। इस तरह कुल 36 रश्मियां हो गईं। इन 36 रश्मियों के ध्वनियों पर संस्कृत के 36 स्वर बने। इस तरह सूर्य की जब 9 रश्मियां पृथ्वी पर आती हैं तो उनकी पृथ्वी के 8 वसुओं से टक्कर होती है। सूर्य की 9 रश्मियां और पृथ्वी के 8 वसुओं के आपस में टकराने से जो 72 प्रकार की ध्वनियां उत्पन्न हुईं, वे संस्कृत के 72 व्यंजन बन गईं। इस प्रकार ब्रह्मांड में निकलने वाली कुल 108 ध्वनियां पर संस्कृत की वर्ण माला आधारित हैं।
ब्रह्मांड की ध्वनियों के रहस्य के बारे में वेदों से ही जानकारी मिलती है। इन ध्वनियों को अंतरिक्ष वैज्ञानिकों के संगठन नासा और इसरो ने भी माना है।
कहा जाता है कि अरबी भाषा को कंठ से और अंग्रेजी को केवल होंठों से ही बोला जाता है किंतु संस्कृत में वर्णमाला को स्वरों की आवाज के आधार पर कवर्ग, चवर्ग, टवर्ग, तवर्ग, पवर्ग, अंत:स्थ और ऊष्म वर्गों में बांटा गया है।
हजारों वर्ष पूर्व मंत्र शक्ति के रहस्य को प्राचीनकाल में वैदिक ऋषियों ने ढूंढ निकाला था। उन्होंने उनकी शक्तियों को जानकर ही वेद मंत्रों की रचना की। वैदिक ऋषियों ने ब्रह्मांड की सूक्ष्म से सूक्ष्म और विराट से विराट ध्वनियों को सुना और समझा। इसे सुनकर ही उन्होंने मंत्रों की रचना की। उन्होंने जिन मंत्रों का उच्चारण किया, उन मंत्रों को बाद में संस्कृत की लिपि मिली और इस तरह संपूर्ण संस्कृत भाषा ही मंत्र बन गई। संस्कृत की वर्णमाला का निर्माण बहुत ही सूक्ष्म ध्वनियों को सुनकर किया गया।
मंत्र साधना भी कई प्रकार की होती है। मंत्र से किसी देवी या देवता को साधा जाता है और मंत्र से किसी भूत या पिशाच को भी साधा जाता है। 'मंत्र' का अर्थ है मन को एक तंत्र में लाना। मन जब मंत्र के अधीन हो जाता है, तब वह सिद्ध होने लगता है। ‘मंत्र साधना’ भौतिक बाधाओं का आध्यात्मिक उपचार है।
मंत्र के प्रकार
मंत्र 3 प्रकार के होते हैं : 1. स्त्रीलिंग, 2. पुल्लिंग और 3. नपुंसक लिंग।
1. स्त्रीलिंग : 'स्वाहा' से अंत होने वाले मंत्र स्त्रीलिंग हैं।
2. पुल्लिंग : 'हूं फट्' वाले पुल्लिंग हैं।
3. नपुंसक : 'नमः' अंत वाले नपुंसक हैं।
*मंत्रों के शास्त्रोक्त प्रकार : 1. वैदिक, 2. पौराणिक और 3. साबर।
*कुछ विद्वान इसके प्रकार अलग बताते हैं : 1. वैदिक, 2. तांत्रिक और 3. साबर।
*वैदिक मंत्र के प्रकार : 1. सात्विक और 2. तांत्रिक।
* वैदिक मंत्रों के जप के प्रकार : 1. वैखरी, 2. मध्यमा, 3. पश्यंती और 4. परा।
1. वैखरी : उच्च स्वर से जो जप किया जाता है, उसे वैखरी मंत्र जप कहते हैं।
2. मध्यमा : इसमें होंठ भी नहीं हिलते व दूसरा कोई व्यक्ति मंत्र को सुन भी नहीं सकता।
3. पश्यंती : जिस जप में जिह्वा भी नहीं हिलती, हृदयपूर्वक जप होता है और जप के अर्थ में हमारा चित्त तल्लीन होता जाता है, उसे पश्यंती मंत्र जाप कहते हैं।
4. परा : मंत्र के अर्थ में हमारी वृत्ति स्थिर होने की तैयारी हो, मंत्र जप करते-करते आनंद आने लगे तथा बुद्धि परमात्मा में स्थिर होने लगे, उसे परा मंत्र जप कहते हैं।
जप का प्रभाव : वैखरी से भी 10 गुना ज्यादा प्रभाव मध्यमा में होता है। मध्यमा से 10 गुना प्रभाव पश्यंती में तथा पश्यंती से भी 10 गुना ज्यादा प्रभाव परा में होता है। इस प्रकार परा में स्थित होकर जप करें तो वैखरी का हजार गुना प्रभाव हो जाएगा।
*पौराणिक मंत्र के प्रकार :
पौराणिक मंत्र जप के प्रकार : 1. वाचिक, 2. उपांशु और 3. मानसिक।
1. वाचिक : जिस मंत्र का जप करते समय दूसरा सुन ले, उसको वाचिक जप कहते हैं।
2. उपांशु : जो मंत्र हृदय में जपा जाता है, उसे उपांशु जप कहते हैं।
3. मानसिक : जिसका मौन रहकर जप करें, उसे मानसिक जप कहते हैं।
मंत्रोच्चारण का रहस्य, जानिए अगले पन्ने पर1. स्त्रीलिंग : 'स्वाहा' से अंत होने वाले मंत्र स्त्रीलिंग हैं।
2. पुल्लिंग : 'हूं फट्' वाले पुल्लिंग हैं।
3. नपुंसक : 'नमः' अंत वाले नपुंसक हैं।
*मंत्रों के शास्त्रोक्त प्रकार : 1. वैदिक, 2. पौराणिक और 3. साबर।
*कुछ विद्वान इसके प्रकार अलग बताते हैं : 1. वैदिक, 2. तांत्रिक और 3. साबर।
*वैदिक मंत्र के प्रकार : 1. सात्विक और 2. तांत्रिक।
* वैदिक मंत्रों के जप के प्रकार : 1. वैखरी, 2. मध्यमा, 3. पश्यंती और 4. परा।
1. वैखरी : उच्च स्वर से जो जप किया जाता है, उसे वैखरी मंत्र जप कहते हैं।
2. मध्यमा : इसमें होंठ भी नहीं हिलते व दूसरा कोई व्यक्ति मंत्र को सुन भी नहीं सकता।
3. पश्यंती : जिस जप में जिह्वा भी नहीं हिलती, हृदयपूर्वक जप होता है और जप के अर्थ में हमारा चित्त तल्लीन होता जाता है, उसे पश्यंती मंत्र जाप कहते हैं।
4. परा : मंत्र के अर्थ में हमारी वृत्ति स्थिर होने की तैयारी हो, मंत्र जप करते-करते आनंद आने लगे तथा बुद्धि परमात्मा में स्थिर होने लगे, उसे परा मंत्र जप कहते हैं।
जप का प्रभाव : वैखरी से भी 10 गुना ज्यादा प्रभाव मध्यमा में होता है। मध्यमा से 10 गुना प्रभाव पश्यंती में तथा पश्यंती से भी 10 गुना ज्यादा प्रभाव परा में होता है। इस प्रकार परा में स्थित होकर जप करें तो वैखरी का हजार गुना प्रभाव हो जाएगा।
*पौराणिक मंत्र के प्रकार :
पौराणिक मंत्र जप के प्रकार : 1. वाचिक, 2. उपांशु और 3. मानसिक।
1. वाचिक : जिस मंत्र का जप करते समय दूसरा सुन ले, उसको वाचिक जप कहते हैं।
2. उपांशु : जो मंत्र हृदय में जपा जाता है, उसे उपांशु जप कहते हैं।
3. मानसिक : जिसका मौन रहकर जप करें, उसे मानसिक जप कहते हैं।
* वैज्ञानिकों का भी मानना है कि ध्वनि तरंगें ऊर्जा का ही एक रूप हैं। मंत्र में निहित बीजाक्षरों में उच्चारित ध्वनियों से शक्तिशाली विद्युत तरंगें उत्पन्न होती हैं, जो चमत्कारी प्रभाव डालती हैं।
* सकारात्मक ध्वनियां शरीर के तंत्र पर सकारात्मक प्रभाव छोड़ती हैं जबकि नकारात्मक ध्वनियां शरीर की ऊर्जा तक का ह्रास कर देती हैं। मंत्र और कुछ नहीं, बल्कि सकारात्मक ध्वनियों का समूह है, जो विभिन्न शब्दों के संयोग से पैदा होते हैं।
* मंत्रों की ध्वनि से हमारे स्थूल और सूक्ष्म शरीर दोनों सकारात्मक रूप से प्रभावित होते हैं। स्थूल शरीर जहां स्वस्थ होने लगता हैं, वहीं जब सूक्ष्म शरीर प्रभावित होता है तो हम में या तो सिद्धियों का उद्भव होने लगता है या हमारा संबंध ईथर माध्यम से हो जाता है और इस तरह हमारे मन व मस्तिष्क से निकली इच्छाएं फलित होने लगती हैं।
* निश्चित क्रम में संग्रहीत विशेष वर्ण जिनका विशेष प्रकार से उच्चारण करने पर एक निश्चित अर्थ निकलता है। अंत: मंत्रों के उच्चारण में अधिक शुद्धता का ध्यान रखा जाता है। अशुद्ध उच्चारण से इसका दुष्प्रभाव भी हो सकता है।
* रामचरित मानस में मंत्र जप को भक्ति का 5वां प्रकार माना गया है। मंत्र जप से उत्पन्न शब्द शक्ति संकल्प बल तथा श्रद्धा बल से और अधिक शक्तिशाली होकर अंतरिक्ष में व्याप्त ईश्वरीय चेतना के संपर्क में आती है जिसके फलस्वरूप मंत्र का चमत्कारिक प्रभाव साधक को सिद्धियों के रूप में मिलता है।
* शाप और वरदान इसी मंत्र शक्ति और शब्द शक्ति के मिश्रित परिणाम हैं। साधक का मंत्र उच्चारण जितना अधिक स्पष्ट होगा, मंत्र बल उतना ही प्रचंड होता जाएगा।
* मंत्रों में अनेक प्रकार की शक्तियां निहित होती हैं जिसके प्रभाव से देवी-देवताओं की शक्तियों का अनुग्रह प्राप्त किया जा सकता है। मंत्र एक ऐसा साधन है, जो मनुष्य की सोई हुई सुसुप्त शक्तियों को सक्रिय कर देता है।
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